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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> तुलसी की दृष्टि

तुलसी की दृष्टि

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4347
आईएसबीएन :0000

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मानस में वर्णित घटनाओं का वर्णन....

Tulsi Ki Drishti

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।। श्रीरामः शरणं मम ।।

परम पूज्यश्री महाराजश्री द्वारा लिखित प्रथम संस्करण का प्राक्कथन

भगवान् श्रीराम को विभिन्न विधाओं में प्रस्तुत किया गया है। नाट्य मंच पर, रामलीलाओं में, उपन्यासों में तथा कथाओं में। पुराण काल से लेकर आज तक प्रभु राम को जन विधाओं/दृष्टियों से प्रस्तुत किया गया उसे गोस्वामीजी के शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है-‘‘जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरति देखी तिन्ह तैसी’’। उनमें हमारे हृदय में जिन राम की मूर्ति शक्ति देती है वे तुलसी के राम हैं। वस्तुतः गोस्वामीजी की उद्भावाना और सिदान्तों ने ही जन मानस को अधिक प्रभावित किया है।

यह वर्ष गोस्वामी तुलसीदास जी की पंचशती का वर्ष है। इस ग्रन्थ में प्रस्तुत प्रवचन-प्रसंग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हुआ था। गोस्वामीजी ने मानस में वर्णित घटनाओं को किस दृष्टि से देखा यही यहाँ प्रस्तुत किया गया है।

जहाँ तक मेरी बात है, मुझे तो इतने वर्षों में कभी यह रंचमात्र अनुभूति नहीं हुई कि मैं गोस्वामीजी की भावनाओं को अपने विचारों से आरोपित कर रहा हूँ। गोस्वामीजी की आत्मा से, उनकी विषय-वस्तु से इतना तादाम्त्य होता है कि मुझे प्रतिक्षण यही लगता है कि इस सिद्धान्त का प्रतिपादन स्वयं गोस्वामीजी कर रहे हैं। कितना कहा गया के स्थान पर चिंतन यही होता है कि क्या-क्या छूट गया। कभी तृप्ति या पूर्णता तो लगी ही नहीं। यही है श्रीराम की अनन्तता। और कृतिकार की दृष्टि से उसके प्रतिपाद्य के दर्शन का अलग ही भाव है।

भगवान् के वनवास में एक ग्राम सखि ने अपनी अन्य सखियों को भगवान् के रूप-सौन्दर्य के दर्शन करने के लिए आमन्त्रित किया पर साथ में यह भी कह दिया कि :


‘‘बनिता बनी स्यामल गौर के बीच, बिलोकहु री सखि मोहि सी है’’


तुम इस सांवले राजकुमार को मेरी जैसी होकर देखो।
दृष्टि विशेष का यही अन्तर गोस्वामीजी की रचना तथा अन्य माध्यमों में प्रतिपाद्य श्रीराम के दर्शन की भिन्नता को सिद्ध करता है।

रामकिंकर

द्वितीय संस्करण


पूज्य श्री रामकिंकरजी महाराज का यह शब्द-विग्रह पाठकों को सादर समर्पित एवं प्रकाशन सेवा में श्री दिवाकर प्रसाद मिश्र, भिलाई; श्रीमती ज्योति अरुण मिश्र, भिलाई एवं भी अनिल गुप्त, रायपुर को  महाराजश्री की ओर से हार्दिक आशीर्वाद और मंगलकामनाएँ।


प्रकाशक

।। श्रीराम: शरणं मम ।।

पहला प्रवचन


भगवान् की महत्ती अनुकंपा से हम सब लोग यहाँ रामचरितमानस पर कुछ चर्चा करने के लिए आज एकत्रित हुए हैं। यहाँ के प्रबुद्ध श्रोताओं के बीच बोलने की स्वयं मेरी आकांक्षा भी बड़ी बलवती रहती है किन्तु पूर्व स्वीकृत कार्यक्रमों में मेरी व्यस्तता के कारण एक लम्बे अन्तराल के बाद ही यह सम्भव हो सका। आइए, जो अवसर हमें प्राप्त हुआ है उसका सदुपयोग करते हुए श्रीरामचरितमानस पर एक दृष्टि डालने की चेष्टा करें।

श्रीरामचरितमानस में गोस्वामीजी की जो एक विशिष्ट दृष्टि है, सर्वप्रथम मैं उसकी ओर आपका ध्यान आकृष्ट करूँगा। मुझे ऐसा विश्वास है कि यदि मेरी बातें प्रचलित सामान्य परम्परा से कुछ हटकर हों तब भी आप सब विज्ञजन उसमें रस लेने की चेष्टा करेंगे।

श्रीरामचरितमानस की विलक्षणता क्या है ? यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से सामने आ सकता है। क्योंकि गोस्वामीजी से पहले भी भगवान् राम के चरित्र को केन्द्र बिन्दु बनाकर इतने ग्रन्थ लिखे जा चुके हैं कि उनके चरित्र को प्रस्तुत करने में किसी नवीनता की बात, असम्भव नहीं तो, कठिन-सी अवश्य लगती है। फिर भी गोस्वामीजी ने मानस में भगवान् राम के चरित्र का चित्रण किया, तो यह जिज्ञासा उठती है कि उस चित्रण के पीछे उनकी दृष्टि क्या है और वे इस ग्रन्थ के माध्यम से व्यक्ति और समाज को क्या देना चाहते हैं ?

प्रारम्भ में ही मैं एक बात स्पष्ट कर दूँ कि श्रीरामचरितमानस एक पवित्र इतिहास है जो त्रेतायुग में घटित हुआ। ‘कहेउँ परम पुनीत इतिहासा’ ऐसा कहकर इसकी ओर इंगित किया गया है। पर रामचरितमानस की जो दृष्टि है उसकी विलक्षणता, उसका पुरातन इतिहास होना नहीं है। हम कह सकते हैं कि गोस्वामीजी, इतिहास का वर्णन करते हुए भी, इतिहास की दृष्टि का प्रयोग नहीं करते। उस दृष्टि की तुलना के लिए मन्दिर और संग्रहालय का दृष्टान्त दिया जा सकता है। किसी संग्रहालय में जाने पर हमारा साक्षात्कार वहाँ रखी कलात्मक मूर्तियों से होता है। जब हम मन्दिर में जाते हैं तो वहाँ पर भी मूर्तियाँ ही हमारे समक्ष होती हैं। संग्रहालय में जैसी मूर्तियाँ होती हैं, मन्दिर में भी उसी से मिलती जुलती मूर्तियाँ ही विद्यमान होती हैं। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि संग्रहालय की मूर्तियाँ अधिक कलात्मक और सुन्दर प्रतीत होती हैं। पर हम सब अच्छी तरह जानते हैं कि इन दोनों स्थलों में जाते समय हमारी दृष्टि में भिन्नता होती है।

संग्रहालय में जब हम जाते हैं तो मूर्ति को एक कलाकृति के रूप में देखते हैं। हमारे मन में जिज्ञासा होती है कि यह मूर्ति कितनी पुरानी है, किस राजा या व्यक्ति-विशेष के काल में गढ़ी गयी, इसका निर्माता कलाकार कौन है तथा इसके कलात्मक पक्ष की क्या विशिष्टता है ? इस प्रकार हम संग्रहालय में काल, कला और कलाकार आदि की जानकारी की ही दृष्टि लेकर जाते हैं। यह दृष्टि भी बड़े महत्त्व की है। इससे हमें मूर्ति के निर्माण काल का, उसके निर्माता का ज्ञान होता है और उसकी कला की विशिष्टता से हमारा परिचय होता है। ‘हम इतिहास की दृष्टि’ की तुलना कर सकते हैं, संग्रहालय में मूर्ति के साक्षात्कार से। इतिहास भी उस काल के महापुरुषों के व्यक्तित्व एवं चरित्र से हमारा परिचय कराता है। पर मन्दिर का सत्य उससे भिन्न है और बड़ा विलक्षण है।

संग्रहालय की मूर्ति हमारे समक्ष एक जड़ वस्तु के रूप में ही होती है। पर जब हम मन्दिर में मूर्ति के दर्शन के लिए जाते हैं तो किसी जड़ तत्त्व की शोध की दृष्टि लेकर नहीं, अपितु, उसके पीछे निहित जो चैतन्य तत्त्व है, उसके साक्षात्कार के लिए जाते हैं। संग्रहालय में हम वह देखते हैं जो दिखाई देता है, पर मन्दिर में हम वह देखना चाहते हैं जो दिखाई नहीं देता है। कहा जा सकता है कि संग्रहालय की दृष्टि भौतिक है और मन्दिर की दृष्टि आध्यात्मिक है। जो प्रत्यक्ष नहीं है उससे साक्षात्कार करने की भावना ही मन्दिर-प्रवेश के मूल में विद्यमान है। संग्रहालय की मूर्तियों के लिए हम माला, वस्त्र और भोग नैवैद्य लेकर नहीं जाते क्योंकि उन्हें हम जड़ मानते हैं। पर मन्दिर की मूर्तियों के प्रति हमारा व्यवहार उन्हें चेतन मानकर ही होता है, भले ही हमारी आँखों से, प्रत्यक्ष रूप से ऐसा न दिखाई दे।

विज्ञान का एक पक्ष है कि जो दिखाई देने वाली वस्तुओं की खोज करता है और विज्ञान का दूसरा पक्ष वह भी है जो न दिखाई देने वाले की खोज करता है। ये दोनों पक्ष जीवन के दो अंग है। हमारा सारा आधिभौतिक व्यवहार स्थूल वस्तुओं पर ही टिका हुआ है, अतः उनकी खोज करना तो स्वाभाविक ही है। पर इसके साथ-साथ यह प्रश्न उठना भी उतना ही स्वाभाविक है कि इन सबके पीछे कोई चेतन तत्त्व है या नहीं ? उस ‘न दिखाई देने वाले को महत्त्व दें या न दें ? इसी प्रश्न का उत्तर रामचरितमानस के एक प्रसंग में एक दृष्टान्त के रूप में दिया गया।

भगवान् राम पम्पासर के किनारे लक्ष्मणजी के साथ बैठे हुए थे। सामने, उस सरोवर में एक विशाल कमलवन शोभा पा रहा था। कमल के फूल खिले हुए थे और कमल के पत्ते इतने सघन और विस्तृत थे कि उन्होंने सरोवर के जल को ढक रखा था जिससे उस सरोवर में प्रत्यक्ष रूप से कहीं भी जल दिखाई नहीं दे रहा था। भगवान् राम ने इसी माध्यम को एक प्रतीक बनाकर सृष्टि और ईश्वर-तत्त्व की ओर संकेत किया। भगवान् राम कहते हैं कि लक्ष्मण पम्पासर में प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देने वाला कमलवन माया का प्रतीक है और प्रगट रूप से न दिखाई देने वाला जल ही मानो, उसके पीछे निहित चैतन्य ब्रह्मतत्व है। गोस्वामी जी ने भगवान् राम के शब्दों को एक दोहे के रूप में व्यक्त किया है, जिसे आपने पढ़ा होगा।–


 

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